मंदिर की वर्तमान इमारत को स्थानीय रूप से लगभग ३०० साल पुराना माना जाता है, लेकिन इसके संबंध में कई किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। कुछ पुरातन लेख कहते हैं कि यहां का आराध्य स्थान १३वीं सदी से ही विद्यमान था। एक कथा कहती है कि बंगाल की रानी भवानी (१७१६–१८०३) ने इस मंदिर का नवनिर्माण करवाया था, तो कुछ अन्य कथाओं में ‘रामशरण शर्मा’ नामक साधक का नाम आता है, जिन्हें स्वयं देवी ने मंदिर निर्माण का आदेश दिया था। प्रसिद्ध किंवदंती के अनुसार तो इस मंदिर का निर्माण लगभग १२२५ ई.पू. (लगभग ३३०० साल पहले) जगन्नाथ राय नामक राजा ने करवाया था। इस प्रकार अनेक परंपराओं का संगम होने के कारण तारापीठ की वास्तविक उम्र का सटीक निर्धारण कठिन है।
## पौराणिक कथा एवं शक्तिपीठ
हिंदू पुराणों के ‘दक्ष यज्ञ’ कथा के अनुसार, देवी सती ने पिता दक्ष द्वारा शिव को अपमानित किये जाने पर यज्ञकुंड में आत्मदाह कर दिया था। क्रोधित शिव ने सती का शव कंधे पर रखकर विराट तांडव डाला, तब विष्णु ने अपने चक्र से शव को अनेक टुकड़ों में विभाजित किया। धरती पर जहाँ जहाँ सती के अंग गिरे, वहाँ वहां शक्ति पीठ स्थापित हुए। इन ५१ पीठों में तारापीठ विशिष्ट है क्योंकि कहा जाता है कि यहां देवी तारा की तीसरी दृष्टि पड़ी थी।
एक अन्य लोकश्रुति में वर्णन है कि जब ब्रह्मांड के समुद्र मंथन से निकला विष शिव के गले में जल गया था, तब तारा देवी ने शिव को अपना स्तनपान कराकर विष का प्रभाव दूर किया। इसी कारण तारा को कभी-कभी शिव की माता के रूप में भी देखा जाता है। इन पुराणिक कथाओं से जुड़ी मान्यता यही है कि यहीं शक्ति की देवी ने अमरत्व की द्रष्टि (विशेष रूप) धारण की थी। मंदिर परिसर में स्थित महाश्मशान (कब्रिस्तान) भी इसी तांत्रिक पृष्ठभूमि को दर्शाता है। तंत्र साधना में महाश्मशान को अति पवित्र माना जाता है, और कहा जाता है कि ऋषि वशिष्ठ ने यहीं काशीवेश के पश्चात् यहाँ तपस्या की थी।
## मंदिर संरचना और पूजा-अनुष्ठान
तारापीठ का मुख्य मंदिर छोटे आकार का है, लेकिन आर्किटेक्चर ध्यान खींचने योग्य है। इसे स्थानीय बंगाली वास्तुकला में “आठचला” (अष्टभुजा) शैली में बनाया गया है। मंदिर की ऊँचाई करीब ६४ फुट बताई जाती है। दीवारें लाल ईंट की मोटी दीवारों से बनी हैं और मंदिर के ऊपर ढलता हुआ शिखर है। मंदिर के भीतर दो प्रतिमाएँ हैं: एक पत्थर की (मूल) प्रतिमा और एक लौह/तांबे की बड़ी प्रतिमा। पत्थर की छवि में देवी तारा शिव को अपने स्तनपान करते हुए दर्शाया गया है – यह “स्तनपानकारी” रूप है, जो मां-पुत्र के गहरे संबंध को प्रदर्शित करता है। इस पत्थर की प्रतिमा के सामने तीन फुट ऊंची धातु की मूर्ति स्थापित है, जिसमें देवी क्रोधी रूप में चार भुजाओं सहित खोपड़ी माला पहनकर और ललाट पर लम्बी जीभ निकाली हुई दिखती हैं। इसका सिर लोहे की मुकुट से सजा हुआ है और ऊपरी हिस्से में रेशमी साड़ी बनी है।
मंदिर के मुख्य गर्भगृह में हर शाम बड़ी पूजा (आरती) होती है। श्रद्धालु देवी को नारियल, केले, फूल और रेशमी वस्त्र अर्पित करते हैं। कुछ भक्त बड़े विचित्र रूप से देवी को शराब की बोतलें भी चढ़ाते हैं। तांत्रिक परंपरा के तहत दैनिक ‘बली’ (जन्तु बलिदान) और ‘तर्पण’ (पूर्वजों को जल अर्पण) जैसे अनुष्ठान यहाँ आज भी होते हैं। विशेष उत्सवों पर मंदिर में विशेष भीड़ उमड़ती है – उदाहरणत: काली पूजा के दौरान यहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु जुटते हैं। इन रीति-रिवाजों और परंपराओं के कारण मंदिर का वातावरण बेहद रहस्यमयी और आध्यात्मिक होता है।
## बामाखेप: तारापीठ के अघोरी संत
१८वीं–१९वीं सदी के काल में बामाखेप तारापीठ के सबसे प्रसिद्ध संत बने। उनका असली नाम बामाचरण चट्टोपाध्याय था, पर उनकी विलक्षण भक्ति की वजह से उन्हें ‘बामा खेप’ (पागल बाम) कहा गया। वे बहुत ही अघोरी स्वरूप के साधक थे और अपने पिता को खो देने के बाद मात्र भक्ति में लीन हो गए। वे मां तारा को “छोटो मा” कहकर बुलाते थे और शिवको विश्व-रक्षक मानते थे। बचपन से ही बामाखेप को किसी सामान्य कार्य में रुचि नहीं थी; वे देवताओं की मूर्तियाँ चोरी कर नदी किनारे ले जाकर रात भर आराधना करते रहते थे।
एक प्रसिद्द घटना यह है कि जब बामाखेप की मां का देहांत हो गया और शव को वार्षा के कारण पार नहीं ले जाया जा सका, तो बामाखेप स्वयं नदी के तेज बहाव में कूदकर अपने मां के शव को पार ले आए और उसे तारापीठ के मृत्युभूमि में दाह संस्कार के लिए लाए। यही उनकी गहन भक्ति का परिचायक है। मंदिर में उन्हें ‘तारापीठ के पागल संत’ के नाम से जाना जाता है, क्योंकि भक्ति के किसी भी सामान्य बंदन में उनकी रुचि नहीं थी, पर उनकी तपस्या और अनुष्ठान की शक्ति असीम मानी जाती थी।
बामाखेप से जुड़ी कई चमत्कारिक कथाएँ प्रचलित हैं। कहा जाता है कि उन्होंने एक भूत बाधित लड़के को ठीक किया, लाखों भक्तों के लिए अचानक भोजन की व्यवस्था कर दी, और एक बार हाथ में विषधर सर्प रहते हुए भी अघोर साधना की थी। नीचे कुछ उल्लेखनीय चमत्कारों की सूची है:
- भूत बाधित का उद्धार: एक कथा के अनुसार, बामाखेप ने एक ऐसे बालक का इलाज किया था जिस पर भूत-प्रेत का संकट था।
- चमत्कारिक भोजन: कहा जाता है उन्होंने एक बार अनेक भक्तों के लिए अचानक शारीरिक संसाधनों से परे भोजन उपलब्ध कराया।
- बाघ से सामना: एक लोककथा में बाघ के साथ उनके निडर सामना का वर्णन मिलता है, जिससे उनकी भक्ति-अडिगता सिद्ध होती है।
इन चमत्कारों और उनकी लगन ने तारापीठ को और भी पवित्र बना दिया। बामाखेप की समाधि भी इसी मंदिर परिसर में है, जहां श्रद्धालु उन्हें श्रद्धांजलि देते हैं। उन्होंने तांत्रिक साधना यहीं की थी, इसलिए तारापीठ का महामुक्षान आज भी तंत्र साधकों का प्रसिद्ध केन्द्र है।
## आधुनिक युग में तारापीठ का महत्त्व
आज तारापीठ मंदिर भारतीय शाक्त धर्मावलंबियों के लिए एक प्रमुख तीर्थस्थल है। यहाँ हर वर्ष लाखों श्रद्धालु आते हैं। विशेषकर श्रावण मास (जुलाई–अगस्त) में बामाखेप की जयंती पर यहां भारी भीड़ लगती है, क्योंकि लोग उनकी मन्नतों के लिए आते हैं। दैनिक पूजा-अर्चना एवं आरती अब व्यवस्थित रूप से होती है। मंदिर परिसर में बनारसी गायक द्वारा की जाने वाली भजन-कीर्तन की ध्वनि सुनाई देती है और चारों ओर कलात्मक दीपमालाओं की रोशनी झिलमिलाती है।
तारापीठ का आध्यात्मिक माहौल आज भी अपनी प्राचीन परंपराओं को जीवित रखता है। पास के डॉवरका नदी के किनारे बनाये गये घाटों पर श्रद्धालु स्नान करते हैं और विशेष उत्सवों पर ‘कल्कि अमावस्या’ एवं ‘त्रिपुरारी अमावस्या’ जैसे आयोजन होते हैं। स्थानीय अधिकारियों की विकसित योजनाओं के चलते वर्तमान में तारापीठ में सुविधाएँ बढ़ी हैं – जैसे बेहतर रास्ते, आवासीय सुविधा और स्वास्थ्य सेवाएँ – जिससे यहाँ तीर्थयात्रियों की संख्या में और वृद्धि हुई है।
कुल मिलाकर, तारापीठ न केवल एक प्राचीन पूजा स्थल है बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक और आध्यात्मिक केंद्र भी बन गया है। यहां की देवी-पूजा, तांत्रिक साधनाएँ, संत बामाखेप की विरासत और लोककथाओं का मेल दर्शाता है कि भारतीय परंपरा में शक्ति-पुजा का कितना व्यापक प्रभाव रहा है। आज भी आधुनिक श्रद्धालु तारापीठ की इस अद्भुत ऊर्जा और इतिहास को महसूस करने आते हैं।
## निष्कर्ष
तारापीठ मंदिर की स्थापना और कथा हमें शिव की शक्ति-साधना, देवी आराधना और तंत्र की बारीकियों से परिचित कराती है। पौराणिक मान्यताओं में माता सती के नेत्र को गिरे स्थान पर यह पीठ विकसित हुई, बाद में महात्माओं के तप से यह क्षेत्र सिद्ध हुआ। बामाखेप जैसे संतों की लगन ने यहां की महिमा को और बढ़ाया। आज भी तारापीठ बांग्ला संस्कृति के त्योहारों और तीर्थयात्राओं का केंद्र है, जहां भक्तगण माता तारा के चरणों में अपनी श्रद्धा अर्पित करते हैं। इन सब कारणों से यह मंदिर धार्मिक इतिहास और आध्यात्मिक खोज के लिए अद्वितीय स्थलों में गिना जाता है।
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